Why should one not go to the temple after there is a death in the family? Can we chant on Tulasi beads in a crematorium?
→ The Spiritual Scientist

Transcription in Hindi

प्रश्न – ऐसा क्यों कहा जाता है कि परिवार में किसी की मृत्यु के पश्चात मंदिर नहीं जाना चाहिए? किसी की मृत्यु के पश्चात क्या हम शमशान के भीतर तुलसी माला पर जप कर सकते हैं?

उत्तर – सामान्यतः नियम यह है कि शमशान से लौटने के बाद अर्चाविग्रहों की पूजा नहीं करनी चाहिए। शमशान ऐसा स्थान है जहाँ जाने पर व्यक्ति भौतिक तथा भावनात्मक दोनों दृष्टिकोणों से अशुद्ध हो जाता है। भौतिक अशुद्धि इसलिए कि जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ती है तो तुरंत ही शरीर में अशुद्धि आरम्भ होने लगती है और यदि शरीर को संरक्षित नहीं किया जाए तो दुर्गंध आना एवं सड़ना आरम्भ हो जाता है। भावनात्मक अशुद्धि इसलिए क्योंकि मृत्यु के समय दुख एवं आघात के कारण हम भावनात्मक रूप से अशुद्ध हो जाते हैं। अर्चाविग्रहों की पूजा-अर्चना के समय हमें शारीरिक रूप से स्वच्छ और भावनात्मक रूप से एकाग्र एवं सचेत होना चाहिए ताकि हम भगवान की सर्वोत्तम सेवा कर सकें।

अर्चाविग्रहों की पूजा का निषेध, यह नियम भागवत विधि के विरुद्ध नहीं है। भागवत विधि के अन्तर्गत श्रवण एवं कीर्तन और पांचरात्रिक विधि में अर्चाविग्रहों की पूजा-अर्चना का विधान है। अतः सामान्यतः परिवार में मृत्यु होने पर हमें स्वयं अर्चाविग्रहों की पूजा-अर्चना नहीं करनी चाहिए। किन्तु यदि किसी ने अपने घर पर अर्चाविग्रह स्थापित किए हों और किसी अन्य द्वारा अर्चाविग्रहों की पूजा का विकल्प उपलब्ध न हो तब हमें घर पर अर्चाविग्रहों की पूजा अर्चना बंद नहीं करनी चाहिए। ऐसे में भगवान की सेवा चलती रहनी चाहिए। किन्तु यदि कोई मंदिर में विग्रहों की सेवा करता हो तो सामान्यतः उसे ऐसी परिस्थिति में यह सेवा नहीं करना चाहिए।

किसी की मृत्यु पर मंदिर नहीं जाना, कर्मकाण्ड परम्परा में बहुत कड़ा नियम समझा जाता है। किन्तु भक्त समुदायों में यह नियम इतना कठोर नहीं है। कभी-कभी स्थानीय परम्पराओं का सम्मान करने के कारण ऐसा हो सकता है कि भक्त कुछ दिनों के लिए मन्दिर न जाएँ, परन्तु महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि कृष्णभक्ति का अभ्यास उत्साहपूर्वक चलता रहे। यहाँ उत्साहपूर्वक का अर्थ यह नहीं कि हम कृत्रिम रूप से सकारात्मक एवं प्रसन्न दिखाई दें। परिवार में मृत्यु के पश्चात यह स्वाभाविक है कि हम शोकाकुल होंगे।

किसी प्रियजन की मृत्यु हमें यह सोचने पर विवश करती है कि यह भौतिक अस्तित्व क्षणिक एवं अनित्य है। यह अनुभव स्मरण कराता है कि हम अपने आध्यात्मिक जीवन के बारे में पूरी तरह गम्भीर एवं तत्पर बनें। श्रीमद्भागवतम् में हम देखते हैं कि जब परीक्षित महाराज की मृत्यु होने वाली थी तब उन्होंने अर्चाविग्रहों की पूजा नहीं की थी किन्तु भगवान की कथाओं के श्रवण एवं कीर्तन पर अपना ध्यान केंद्रित किया था। इसी प्रकार हम भी परिवार में किसी प्रियजन की मृत्यु पर श्रवण एवं कीर्तन द्वारा श्रीकृष्ण की शरण ले सकते हैं। ऐसी भी परम्परा है कि ऐसे अवसर पर दिवंगत व्यक्ति की स्मृति में उसके सम्बन्धियों द्वारा श्रीमद्भागवत सप्ताह अथवा भागवत कथा का आयोजन करवाया जाता है। ऐसे अवसर पर भगवान की कथाओं का श्रवण हमें शास्त्रचक्षु तथा भीतरी सांत्वना प्रदान करता है। यह ज्ञान एवं अनुभूति न केवल हमारे […]

Should one take saffron only when one is convinced that Krishna is God?
→ The Spiritual Scientist

Answer Podcast

https://www.thespiritualscientist.com/audio/CCD%20QA/2015%20QA/02-15%20QA/Should%20one%20take%20saffron%20only%20when%20one%20is%20convinced%20that%20Krishna%20is%20God.mp3
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Transcribed by: Anupama Kulkarni Mataji

Question: Should one take saffron only when one is convinced that Krishna is God?

Answer: Different devotees may have different personal convictions which inspire them in their spiritual lives, and they may emphasize more on their convictions when they present Krishna consciousness to others. Those convictions may not disagree with the philosophy, but they may not be universal convictions for everyone. We need to ask ourselves, are we convinced that Krishna is the supreme personality of Godhead.

Once, Srila Prabhupada asked some of his GBC (the Governing Body Commission) disciples that if you are convinced that Krishna is God, you will be able to make the whole world Krishna conscious just in eighteen days. However, none of his disciples could say that they were convinced. Does that mean that they were not convinced? No, if they had not been convinced, at least to some extent, they would not have been able to dedicate their lives and do so much for Srila Prabhupada. So, rather than seeing conviction as a digital one or zero progression, we need to see conviction as an analog progression. If we are reasonably convinced about Krishna’s divinity and supremacy, then we can surely take steps forward in our spiritual life – be it becoming a brahmachari or taking saffron – and that conviction will gradually deepen.

However, if one has serious reservations, like one may cite other purana and not accept Lord Krishna’s divinity and supremacy and says something else, then that is a different issue. But for somebody who has already become a brahmachari and has been serving in the movement for a good amount of time, there should not be any major doubt about their accepting Krishna’s supremacy. One may be at a level where if somebody very learned in scriptures brings up some contrary quotes about Lord Shiva being supreme or Goddess Devi being supreme, one may not know how to answer it, though this is unlikely to disturb one’s personal convictions. The Bhakti Rasamrita Sindhu says madhyama-adhikari platform is where one is convinced; one’s faith is not disturbed but one may not know how to respond to arguments. The uttama-adhikari platform is where one knows how to respond to arguments as well as inspire people to come closer towards Krishna.
We should have some basic conviction that the person to whom we are dedicating our life is the ultimate lord of our heart and we are not just rejecting the world and its love but we are directing our love to the original and the best object of love. With that conviction, one can say no to the worldly temptations with a greater firmness and not with reluctance or half-heartedness.

Therefore, we do need some basic conviction. However, instead of making that conviction as a digital one-zero thing, we should give it a proper philosophical context. We should understand […]

Why does Ayurveda prescribe medicines with non-veg ingredients when meat is forbidden in Vedic culture?
→ The Spiritual Scientist

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Transcription: Neelam Kuldeep Mohan Mataji (Muzaffarnagar)

प्रश्न: जब वैदिक संस्कृति में माँसाहार वर्जित है तब कभी-कभी आयुर्वेदिक दवाइयों में मांसाहार घटकों का प्रयोग क्यों किया जाता है?

उत्तर: सर्वप्रथम वैदिक संस्कृति में माँसाहार वर्जित नहीं है। कुछ विशेष परिस्थितियों में उन्हें लेने की छूट दी गई है किन्तु जो लोग आध्यात्म की खोज में हैं, उनके लिए माँसाहार विशेषतः वर्जित है।

जहां तक आयुर्वेद का प्रश्न है, ज्ञान की इस शाखा का उद्देश्य आध्यात्मिक नहीं है। इसका सम्बंध चिकित्सा से है और इसका उद्देश्य भौतिक है। तकनीकी दृष्टिकोण से आयुर्वेद एक उपवेद है, अर्थात वेदों के अधीन। इस मायने में उसका वेदों से कुछ सम्बंध अवश्य है। चरक संहिता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आयुर्वेद और उसके सिद्धांत उन लोगों पर लागू नहीं होते हैं जिनका लक्ष्य आध्यात्म हो।

वैदिक संस्कृति में जहाँ भौतिक स्तर पर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बात की जाती है, ठीक वैसे ही आयुर्वेद स्वास्थ्य सम्बंधित सिद्धांतों के बारे में बताता है। इन सिद्धांतों के अंतर्गत आता है रोगों की रोकथाम तथा औषधियों द्वारा चिकित्सा। आयुर्वेद का केंद्र बिंदु लोगों का भौतिक जीवन होता है। आयुर्वेद नास्तिक दर्शन पर आधारित नहीं है। इसमें आत्मा और भगवान का उल्लेख है, किन्तु ऐसे विषय उसका केंद्र बिंदु नहीं है। आयुर्वेद का यह उद्देश्य नहीं है कि वह लोगों को आत्मज्ञान कराए।

अतः जिनका लक्ष्य आध्यात्मिक है, उन्हें यह समझना चाहिए कि आयुर्वेद के सिद्धांत आध्यात्म के सिद्धांतों के अधीन होने चाहिए। आयुर्वेद के सिद्धांतों को आध्यात्म के सिद्धांत से स्वतंत्र और उच्च नहीं समझना चाहिए। भगवद्गीता 15.15 में कृष्ण बताते हैं- ‘वैदेश्च सर्वैरहमेव वेद्यो’- सभी वेदों का ज्ञान मुझ पर आकर समाप्त होता है। अंततः आयुर्वेद का उद्देश्य भी हमें कृष्ण की ओर ले जाना है। वैदिक शास्त्रों में, ऊंचे और निचले, दोनों स्तरों के सिद्धांत बताए जाते हैं।

आयुर्वेदिक सिद्धांत काफी हद तक सात्विक हैं, लेकिन उनका उपयोग दोनों प्रकार के लोग कर सकते हैं, जो सत्व से ऊपर हैं और जो सत्व के नीचे हैं। जो लोग सतोगुणी नहीं है, यानी रजो और तमोगुणी हैं, वे लोग सम्भवतः माँसाहार करते हों और ऐसे लोग ऐसी दवाइयां भी ले सकते हैं जिनमें माँसाहारी घटक हों। आयुर्वेद में माँसाहारी दवाइयों को लेने की अनुमति है। अब यदि हम किसी परम्परागत आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाऐं जिनका आध्यात्म की ओर रूझान है तो वे माँसाहारी दवाइयों के शाकाहारी विकल्प भी हमें अवश्य बताएंगे। यदि हम किसी व्यावसायिक दृष्टिकोण वाले आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाऐं जिसका आध्यात्म की ओर रूझान नहीं है तो वे देखेंगे कि क्या उपलब्ध है, क्या सस्ता है, क्या सुविधाजनक है और वे शाकाहारी तथा माँसाहारी दवाइयों में अधिक भेद नहीं करेंगे। ऐसे व्यवसायिक दृष्टिकोण रखने वाले चिकित्सकों के साथ बात करने पर हमें सम्भवतः ऐसा प्रतीत हो कि आयुर्वेद में अकसर माँसाहारी दवाइयाँ दी जाती हैं। किन्तु ऐसा नहीं है कि आयुर्वेद में अकसर माँसाहारी दवाइयाँ दी जाती हैं। अधिकतर दवाइयाँ माँसाहारी नहीं होती और शाकाहारी विकल्पों के बारे में आग्रह करने पर ऐसे विकल्पों के बारे में जाना जा सकता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि […]

Can food with onion and garlic be offered to Krishna during emergencies?
→ The Spiritual Scientist

From Purushottama Pr:
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Transcription by: Neelam Kuldeep Mohan Mataji (Muzaffarnagar)
प्रश्न – क्या आपात परिस्थितियों में कृष्ण को प्याज और लहसुन वाले भोजन का भोग लगाया जा सकता है?
उत्तर- मनु संहिता में प…

How should we respond when sacred characters from our tradition are criticized?
→ The Spiritual Scientist

For example, a politician-lawyer recently criticized Lord Rama as being a lousy husband for abandoning Sita. We also know that they wouldn’t dare to criticize characters of other religions like this? Is it our weakness due to which they are getting away with such criticism?

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Transcription: Sri Amit Agrawal and Smt Nidhi Agrawal (Noida)

प्रश्न – जब हमारे धर्म के पवित्र चरित्रों की आलोचना की जाती है, तो हमें कैसे उत्तर देना चाहिए?

उत्तर – हाल ही में एक वकील ने भगवान राम को अनैतिक बताया क्योंकि उन्होंने सीता माता का त्याग किया था। हमें ऐसे लोगों की अशिष्टता पर बहुत क्रोध आता है। हम यह भी जानते हैं कि ऐसे लोग अन्य धर्म के किसी व्यक्ति, गुरु या भगवान की आलोचना करने की हिम्मत नहीं करते। तो क्या अपने धर्म के पवित्र चरित्रों की आलोचना सुनना हमारी कमजोरी है?

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।

आजकल लोग अपने धर्मों के प्रति कट्टर हो गए हैं, और इस कट्टरता का कारण है अन्यों और अपने धर्म के बीच के अंतर के प्रति असहिष्णुता। कुछ व्यक्ति ऐसे है जों हिंसा द्वारा अपने धर्म के प्रति की गई आलोचना को दबा देते हैं किन्तु यह समस्या का झूठा और बनावटी हल है। ऐसी प्रतिक्रिया अकसर ऐसे व्यक्तियों द्वारा की जाती है जो कट्टरतावादी होते हैं। वर्तमान समय में ऐसे कट्टरतावादी धर्मों को आदर नहीं मिलता। लोग खुले रूप में नहीं तो गुप्त रूप से ऐसे धर्मों की निंदा करते हैं। बुद्धिमान और सुसंस्कृत लोग ऐसे धर्मों से किनारा करने लगते हैं।

इसके विपरीत कृष्णभावनामृत एक ऐसी विचारधारा है जो अन्य धर्मों की विचारधाराओं का आदर करती है। इसकी विचारधारा में कट्टरतावाद के लिए बिल्कुल कोई स्थान नहीं है। यह न केवल एक विचारधारा है बल्कि एक व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण है जो अन्य विचारधारओं को अलग-अलग स्तरों पर अपने अंदर समायोजित करती है। कृष्णभावनामृत के अनुसार अन्य धर्म भी लोगों की चेतना को निचले स्तर से उठाकर ऊपर की ओर ले जा सकते हैं, अतः अन्य धर्म भी लोगों के जीवन को सुखमय बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान कर सकते हैं।

भगवान की निंदा सुनना हमारे सिद्धांतों के विरुद्ध है पर यदि कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाए तब तीन विकल्प हैं –
(i) निंदा या आलोचना करने वाले की जिह्वा काट लें
(ii) आत्महत्या
(iii) अथवा वहाँ से चले जाऐं।

पहला विकल्प प्रतीकात्मक (symbolic) है। यहाँ जिह्वा काटने को अक्षरशः नहीं लेना है। यहाँ जिह्वा काटने का अर्थ है अपने तर्कों द्वारा निंदा करने वाले को अनुत्तर करना। आलोचना हमें प्रेरित करती है कि हम अपने शास्त्रों की गहराई में जाएं और उन्हें बेहतर समझें। कलियुग में आलोचना स्वाभाविक है। आलोचना होने पर एक विवाद का वातावरण बनता है और ऐसे में सामान्य जन जिज्ञासु हो जाते हैं। अतः हमें आलोचना को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। अपनी संस्कृति को गहराई से समझकर बुद्धिमत्ता एवं संवेदनशीलता के साथ उसे लोगों के साथ बाँटें।

दूसरे विकल्प का उदाहरण देवी सती हैं। इन्होनें अपने पति भगवान शिव की आलोचना सुनकर आत्महत्या कर ली थी जिसके कारण काफी उत्पात मचा था। किन्तु यह विकल्प एक अत्यंत कड़ा कदम है जिसका परामर्श […]

Isnt the Pandavas’ killing their own relatives over a property dispute immoral?
→ The Spiritual Scientist

Wouldn’t such killing lead to chaos today? Isn’t Krishna’s insisting on in in the Gita also immoral?

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Transcription: Narmada Shorewala Mataji (Kaithal)

प्रश्न: सम्पत्ति विवाद को लेकर लड़ा गया महाभारत का युद्ध क्या अनैतिक नहीं था? भगवान श्री कृष्ण का अर्जुन को अपने संबंधियों की हत्या के लिए कहना क्या अनैतिक नहीं था? इस प्रकार यदि सब संपत्ति के लिए अपने संबंधियों की हत्या करने लगें, तो क्या इससे अव्यवस्था नहीं फैलेगी?

उत्तर: सर्वप्रथम, कौरवों और पाण्डवों के बीच जो विवाद था, वह केवल संपत्ति के लिए नहीं था- वह एक धार्मिक विवाद था। आरम्भ में संपत्ति अवश्य ही एक कारण था, लेकिन मुख्य कारण धार्मिक था। कौरवों और पाण्डवों की धर्म के प्रति निष्ठा अलग-अलग थी, जिसके कारण युद्ध हुआ।

इन सभी प्रश्नों का उत्तर धर्म के तीन अलग-अलग स्तरों पर समझा जा सकता है –
(i) एक क्षत्रिय का अपने लिये धर्म
(ii) एक क्षत्रिय का अपने नागरिकों के प्रति धर्म
(iii) एक क्षत्रिय का भगवद्भक्त के रूप में धर्म।

प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार क्षत्रियों का धर्म है शासन प्रदान करना। वैदिक शास्त्रों के अनुसार यदि समाज के सभी वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) अपना-अपना कर्तव्य निभायें, तो समाज का विकास सुसंगत और संतुलित होता है। इसी दृष्टिकोण से यदि एक क्षत्रिय अपने वर्ण के अनुसार शासन न करे और उनके पास शासन हेतु छोटा सा भी क्षेत्र न हो, तो उनका अपने धर्म के प्रति उल्लंघन होगा। हम जानते हैं कि पाण्डव युद्ध टालने के लिए अपने अधिकार की सारी संपत्ति त्यागने को तैयार थे। उन्होंने मात्र पांच गाँवों की ही मांग की थी। इससे स्पष्ट होता है कि पाण्डव भूमि और संपत्ति के लोभी नहीं थे। यदि ऐसा होता तो वे एक विशालकाय राज्य की तुलना में मात्र पाँच गाँव लेने के लिये कभी तैयार नहीं होते। साथ ही साथ श्रीकृष्ण को यदि सम्पत्ति के विषय को लेकर युद्ध के लिए उकसाना ही होता तो वे शांति दूत के नाते स्वयं पाँच गाँवों का प्रस्ताव कभी नहीं रखते।

दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार, क्षत्रियों का धर्म है कि वे अपने नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करें। महाभारत में हम देखते हैं कि युद्ध टालने के लिए पाण्डव अपनी ही पत्नी के प्रति किये गए अत्यंत शर्मनाक और अपमानजनक व्यवहार को भी क्षमा करने के लिए तैयार थे। किन्तु दुर्योधन, हालाँकि उसमें कुछ लक्षण क्षत्रियों के थे, पर मुख्यतः वह एक आसुरी स्वभाव का व्यक्ति था। ऐसा राजा यदि नागरिकों को कभी न्यायपूर्ण शासन नहीं दे सकता। अतः एक क्षत्रिय होने के नाते पाण्डवों का यह कर्तव्य था कि वे अपने नागरिकों को एक न्यायपूर्ण राजा प्रदान करें।

महाभारत में दिए गए श्लोकों के आधार पर कुछ विद्वानों व इतिहासकारों का मत दुर्योधन को लेकर अलग-अलग हैं। कुछ के अनुसार दुर्योधन एक अत्यंत बुरा राजा था, किन्तु अन्यों के अनुसार ऐसा नहीं था। यह दूसरा विचार उन श्लोकों पर आधारित है जिनमें युधिष्ठिर स्वयं अपनी आलोचना करते हैं। युद्ध जीतने के बाद जब युधिष्ठिर रणभूमि में लाखों शवों को देखता है, तब वह अपनी आलोचना करने लगता है और कहता है कि – “दुर्योधन एक अच्छा शासक था और सिंहासन पाने के लिए इतने […]

Are Radharani and Lakshmi devi the same person?
→ The Spiritual Scientist

From: satya dev das
Answer Podcast
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Transcription by: Nirmala Shorewala Mataji (Kaithal)
प्रश्न: क्या राधा रानी और लक्ष्मी देवी एक ही व्यक्ति हैं?
उत्तर: ये दोनों एक हैं भी और नहीं भी। व्यक्तित्व के दृष्टिकोण से वे दोनों एक…

What is the reason for shaving the head at Tirupati?
→ The Spiritual Scientist

From: Mukund

Is there any scriptural basis or scriptural reference for it? Or is it started just started by someone and people are following it blindly?

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Transcription by: Manju Agarwal Mataji (Muzaffarnagar)

प्रश्न: तिरुपति में जो लोग मुंडन कराते हैं उसका क्या कारण है? क्या शास्त्रों में इस प्रथा का कोई उल्लेख है या इस प्रथा को किसी ने आरम्भ किया और लोग उसका अंधाधुंध अनुसरण कर रहे हैं?

उत्तर: पुराने समय में तीर्थयात्रा करने के पीछे हेतु यह होता था कि हम अपनी भौतिक आसक्तियों को कम करें और आध्यात्म की ओर अधिक ध्यान दें। यह भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता था। उदाहरणार्थ श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध में बताया गया है कि जब नंद महाराज, यशोदा मैया और बृजवासी तीर्थयात्रा पर गए तो उन्होंने उपवास रखा, दान दिया और कुछ धार्मिक कार्य किए। साधारणतया तीर्थयात्राओं में इस प्रकार के कार्य प्रचलित होते हैं।

कलियुग में बालों के प्रति लोग बड़े आसक्त होते हैं – लावण्य केश धारणं। भागवतम् के बारहवे स्कंध में वर्णित कलियुग के लक्षणों में एक लक्षण यह भी है कि इस युग में केशविन्यास (hairstyle) को सुंदरता का प्रतीक माना जाएगा। लोग बालों को आभूषण की तरह देखेंगे। आजकल ऐसा हम प्रत्यक्ष रूप में देख भी रहे हैं। लोग अन्यों के बालों को बड़े ध्यान से देखते हैं और अपने बालों को भी उसी प्रकार बनाना चाहते हैं।

आध्यात्म की दृष्टि से यदि हम शरीर के प्रति अपनी आसक्ति कम करना चाहते हैं तो बालों को लेकर दो विकल्प सम्भव हैं – (i) उनकी तरफ ध्यान न दें, जैसे बढ़ते हैं उन्हें बढ़ने दें (ii) उनको मुंडन के द्वारा त्याग दें। हम देखते भी हैं कुछ सन्यासी अपने बालों की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं देते जिससे उनके बाल बड़े लंबे और गुच्छेदार हो जाते हैं।

कलियुग में, स्त्री और पुरुष दोनों में, बालों के प्रति बड़ा लगाव देखने को मिलता है। स्त्रियों के बाल तो प्राकृतिक ही लम्बे होते हैं किन्तु पुरुष भी लंबे बाल रखने में पीछे नहीं हैं। अतः वैष्णव आचार्यों ने बालों का मुंडन कराने का परामर्श दिया है। यह प्रथा वर्षों से चली आ रही है। हमने देखा है कि चैतन्य महाप्रभु ने भी जब संन्यास लिया था तो अपने बालों का मुंडन कराया था। यहाँ सिद्धांत यह नहीं कि हम श्रीकृष्ण को अपने बाल समर्पित करते हैं। सिद्धांत यह है कि हम श्रीकृष्ण को बालों के प्रति अपना लगाव समर्पित करते हैं।

ऐसी कई वस्तुऐं हैं जिनसे हमें बड़ी आसक्ति होती है। ऐसी वस्तुओं का हम श्रीकृष्ण की सेवा में सीधा उपयोग कर सकते हैं। उदाहरणार्थ हमें धन से बहुत लगाव होता है जिसका उपयोग हम श्रीकृष्ण की सेवा में कर सकते हैं। किन्तु कुछ ऐसी अशुद्ध वस्तुऐं होती हैं, जैसे सिगरेट, शराब, जिनसे प्रायः हमारी आसक्ति हो जाती है पर उन्हें हम श्रीकृष्ण की सेवा में सीधे-सीधे नहीं लगा सकते। ऐसी वस्तुओं का उपभोग हमें श्रीकृष्ण से दूर ले जाता है। अतः इस प्रकार की अशुद्ध वस्तुओं को अपने जीवन से पूर्णतया त्याग करके ही हम श्रीकृष्णा की वास्तविक सेवा कर सकते हैं। बालों का त्याग इन दोनों श्रेणियों के त्याग के बीच […]

Can one go back home back to godhead by practicing Christianity, Islam, Buddhism, Jainism and Judaism?
→ The Spiritual Scientist

From: Purushottam Kumar

Can one go back home back to godhead by practicing Christianity, Islam, Buddhism, Jainism and Judaism?

Are Christianity, Islam, Buddhism, Jainism and Judaism authorized religious practice? Can one develop genuine love for God by practicing these religions? If yes then what is the destination of those who are sincerely practicing these religions? Do they go back home back to Godhead?

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 Answer Summary By HG Kanai Krishna Prabhu

 Criterion for going back to Godhead is love of God: Going back to Godhead is not a matter of religious denomination, but of spiritual devotion. If one has developed love of God, one can go back to Godhead irrespective of one’s religious tradition. SP was asked in a radio program called ‘Les crane show’ about whether people who followed Christianity could go back to Godhead. SP answered that anyone, who had developed love of God by practicing any bona fide religion, could go back to Godhead. On contrary, a Christian teacher in the same program said that path back to Godhead was very narrow and only his religion could take one back to God. This may be the opinion of many exclusivists, but not of Vedic scriptures.

 

Love of God in other religions: Can people develop love of God by practicing other religions than Vedic religion? Definitely! There are saints like Francis of Assisi, Teresa of Avila who have developed exalted qualities of love of God as mentioned in Srimad Bhagavatam. E.g. tolerance, compassion, non envy. There are Sufis in Islam, they are also considered exalted devotees.

 

Theistic religions: Christianity, Judaism and Islam accept that God is ultimate goal of life and one can go back to God by developing love for him. These are theistic religions. Where will practitioners of these religions go? It depends on one’s level of practice. Generally, if one follows the bona fide representative of God, it is God and the representative that takes care of one’s moving forward. How and where exactly one will go depends upon one’s consciousness and one’s individual circumstances. E.g. if one faithfully follows Christianity, Jesus may take the person to another place and further guide him to take him back to Godhead, or purification and revelation may come within one’s heart to go back to Godhead. We can’t say whether such a soul will go back to Godhead within the same lifetime or over multiple lifetimes. It will depend upon one’s individual level of devotion and past Karmic entanglements, conditionings etc. Specifics may vary, even for one following Gaudiya Vaisnava path, but the principle remains the same.

 

Pre-theistic religions: Buddhism and Jainism are non theistic and those following these religions purely will rise to mode of goodness. These are pre-theistic religions, focused on not so much the rejection of God, but on proper living. The practitioners of these paths will get elevation based on level of mode of goodness assimilated. In Buddhism, there’s a personalist tradition which focuses on Buddha as God and some Buddhists want to attain his abode. If the practitioner […]

Can devotees kill snakes and scorpions?
→ The Spiritual Scientist

Answer Podcast
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Transcribed by: Neelam Kuldeep Mohan Mataji (Muzaffarnagar)
प्रश्न: क्या कोई भक्त साँप और बिच्छू को मार सकता है?
उत्तर: श्रीमद्भागवत के सातवें स्कन्ध के नौवें अध्याय में प्रह्लाद महा…

How is the Western world having its necessities despite not performing any sacrifices?
→ The Spiritual Scientist

From: akash

vedas say that if you worship this god you will get rain, that god you will get this etc. and if you don’t if will be bereft of those benefits, rains will be less etc. Now if we look at almost whole of western world, they have almost  everything they need, even without any sacrifices, or worship etc. How is that to be understood.

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ANSWER: It is a misperception, that the west has almost all that  it needs. All of us have probably heard about devastating hurricane and storms. We have heard of hurricane Katrina, few years ago, and  also there was a big storm right in the New York City, which is the economic and social capital of America, the pride of America.  When the storm came up, the whole American government was helpless . To some extent people were told, flee from here. If we look at the overall situation of nature in America,  it is at times quite furious, and there are times when throughout the year, for many months, one is just not able to go out of the house because of heavy snowfall. This may not happen in all parts of America and it certainly does not happen in those parts of America which we see in television or  movies. But it does happen in real America. So, first of all the idea that the America is getting everything that it needs, is not true. Similarly, in Europe there have been farce heat waves.  Also, in India we had  tsunamis ,  earthquakes, famines etc., but the frequency and the ferocity of the regular hurricanes in America are much more severe.  The heat  wave that hit Europe  few years back  was much fiercer than the occasional heat  waves, or cold waves or excessive rains that come in India. So rather than going into the intricacies of comparison of  natural calamities and l problems that we face in India and America, the underlining principle is that,  things are not as rosy in the west as are portrayed in our media and TV. They are quite grave in many ways. Yes, if people do not worship and perform yajgya then the result is, not just that they don’t get rains;  rather they don’t get rains in  proper way.  We should not  be naive and  simple in understanding that  if someone is performing  yajgya or  is following  dharma  then suddenly the rains start coming. No that is not completely correct. That is  just a causal connection between the two. But  this causal connection  is much more broader and deeper. You can read the article “artificial rains, imaginary gains, real pains” to get the broader understanding of this.

The general principle is  that, the  yajgya, the sacrifice, that are performed and  dharmic activities that are done are like the taxes that are paid to the government.  If the taxes  are […]

What is Karma? Is kartavya and karma same? As a student what are my karma and kartavya? – Hindi
→ The Spiritual Scientist

Answer Podcast
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Transcription by: Nirmala Shorewala (Kaithal)
प्रश्न – कर्म क्या है? क्या कर्म और कर्तव्य समान हैं? एक छात्र होने के नाते मेरा कर्तव्य क्या है?
उत्तर – “कर्म” शब्द के चार अर्थ ह…